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देवस्नान पूर्णिमा 2025: त्यागराज नगर में भगवान जगन्नाथ का दिव्य स्नान उत्सव!

वस्नान पूर्णिमा 2025: त्यागराज नगर में भगवान जगन्नाथ का भव्य स्नान

देवस्नान पूर्णिमा 2025: आस्था, स्नान और अनवसर का रहस्य

क्या आपने कभी सोचा है कि भगवान भी बीमार पड़ते हैं? या उन्हें भी आराम की ज़रूरत होती है? यह बात थोड़ी अटपटी लग सकती है. हालांकि, ओडिशा के पुरी धाम में और दिल्ली के त्यागराज नगर जैसे जगन्नाथ मंदिरों में मनाई जाने वाली देवस्नान पूर्णिमा का यही तो सार है. यह सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक गहरी आस्था और भगवान के प्रति भक्तों के असीम प्रेम का प्रतीक है.

11 जून, 2025 को, त्यागराज नगर, दिल्ली का श्री जगन्नाथ मंदिर एक दिव्य उत्सव का साक्षी बनेगा. यह है देवस्नान पूर्णिमा! इस दिन भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा को सार्वजनिक रूप से पवित्र जल से स्नान कराया जाता है. इसके बाद, वे 15 दिनों के लिए भक्तों के दर्शन से ओझल हो जाते हैं. आइए, इस अद्भुत परंपरा की गहराइयों में गोता लगाएँ और इसके महत्व को जानें.

देवस्नान पूर्णिमा: आखिर ये है क्या?

सीधे शब्दों में कहें तो, देवस्नान पूर्णिमा ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है. इस दिन भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा मंदिर के गर्भगृह से बाहर आते हैं. वे ‘स्नान मंडप’ पर विराजमान होते हैं. यहाँ, उन्हें विशेष रूप से तैयार किए गए 108 घड़े सुगंधित और औषधीय जल से स्नान कराया जाता है. यह स्नान इतना भव्य होता है कि इसे देखने के लिए देश-विदेश से भक्त उमड़ पड़ते हैं.

हालांकि, कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. इस भव्य स्नान के बाद, भगवान को बुखार आ जाता है! जी हाँ, आपने सही सुना. मान्यताओं के अनुसार, अत्यधिक स्नान से भगवान अस्वस्थ हो जाते हैं. इसीलिए, वे 15 दिनों के लिए भक्तों को दर्शन नहीं देते. इस अवधि को ‘अनवसर’ काल कहा जाता है. इस दौरान, भगवान ‘अनासर घर’ या एकांत कक्ष में आराम करते हैं. वैद्य उनका उपचार करते हैं.

क्यों मनाई जाती है यह अनोखी पूर्णिमा? – पर्दे के पीछे की कथाएँ!

देवस्नान पूर्णिमा की जड़ें कई रोचक कथाओं और पुरानी परंपराओं में समाई हैं. इसकी कुछ प्रचलित कथाएँ इस प्रकार हैं:

1. ब्रह्मपुराण और स्कंद पुराण से जुड़ी कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार, राजा इंद्रद्युम्न ने पुरी में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की काष्ठ प्रतिमाएँ स्थापित कीं. जब ये प्रतिमाएँ तैयार हुईं, तो राजा ने विद्वान ब्राह्मणों और संतों से प्रतिष्ठापना विधि पूछी. तब, उन्होंने ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन देवताओं को पवित्र स्नान कराने की सलाह दी. यही देवस्नान पूर्णिमा कहलाया. मान्यता है कि इसी दिन भगवान ने पहली बार सार्वजनिक दर्शन दिए थे.

2. विश्वकर्मा की अनूठी शर्त और ‘अनवसर’ का रहस्य

एक अन्य कथा के अनुसार, देवशिल्पी विश्वकर्मा भगवान जगन्नाथ की प्रतिमाएँ बना रहे थे. उन्होंने राजा इंद्रद्युम्न से एक शर्त रखी. शर्त थी कि जब तक प्रतिमाएँ बन न जाएँ, कोई भी उस कक्ष में प्रवेश नहीं करेगा. हालांकि, राजा की पत्नी गुंडिचा देवी ने उत्सुकतावश समय से पहले ही दरवाज़ा खोल दिया. परिणामस्वरूप, विश्वकर्मा क्रोधित होकर प्रतिमाओं को अधूरा छोड़कर चले गए.

इन अधूरी प्रतिमाओं को ही स्थापित किया गया. परंतु, चूँकि वे पूर्ण नहीं थीं, इसलिए उन्हें साल में एक बार ‘स्नान’ से ‘पूर्ण’ करने का प्रयास होता है. अत्यधिक स्नान से ‘बीमार’ पड़ने की अवधारणा इसी से जुड़ी है. यह उन अधूरी मूर्तियों के ‘आराम’ और ‘ठीक होने’ का प्रतीक है. इसके बाद, वे नवयौवन (नेत्रोत्सव) के साथ प्रकट होती हैं. इस प्रकार, ‘अनवसर’ काल इसी दौरान होता है, जब भगवान एकांत में ‘स्वस्थ’ होते हैं.

3. गजपति राजाओं की परंपरा और जल यात्रा

इतिहासकारों का मानना है कि गजपति राजाओं ने यह उत्सव शुरू किया था. प्राचीन काल में, भगवान की प्रतिमाओं को मंदिर से बाहर लाकर सार्वजनिक स्नान कराना भक्तों को भगवान के करीब लाता था. इसके अतिरिक्त, यह वर्षा ऋतु के आगमन से पहले पृथ्वी को शीतलता देने और अच्छी फसल की कामना से भी जुड़ा था.

त्यागराज नगर में देवस्नान पूर्णिमा का उत्सव: एक अनूठा अनुभव!

दिल्ली का श्री जगन्नाथ मंदिर, त्यागराज नगर में पुरी की परंपराओं को जीवंत करता है. यहाँ भी देवस्नान पूर्णिमा का उत्सव बड़े ही धूम-धाम से मनाया जाता है.

उत्सव का आरंभ और पहांडी यात्रा

देवस्नान पूर्णिमा के दिन सुबह ब्रह्ममुहूर्त में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा को गर्भगृह से बाहर निकाला जाता है. उन्हें एक विशेष पालकी में स्नान मंडप तक लाया जाता है. यह मंडप फूलों और पारंपरिक चित्रों से सजा होता है. पुरी की ही तरह, यहाँ भी देवताओं को ‘पहांडी’ विधि से लाया जाता है. इस विधि में देवताओं को धीरे-धीरे, झूलते हुए ले जाया जाता है. इस दृश्य को देखना अद्भुत होता है. भक्तों के जयकारे और ‘हरि बोल’ से पूरा वातावरण गूँज उठता है.

दिव्य स्नान (महास्नान) का अनुष्ठान

त्यागराज नगर में भी पवित्र 108 घड़े जल का उपयोग होता है. यह जल मंदिर परिसर में एकत्र होता है, जिसमें चंदन, केसर, फूल और औषधीय जड़ी-बूटियाँ मिलाई जाती हैं. पुजारी वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए भगवान को स्नान कराते हैं. यह स्नान सिर्फ पानी से नहीं, बल्कि आस्था और परंपरा के साथ होता है. भक्तगण इस पल को अपनी आँखों में कैद करने के लिए लालायित रहते हैं, क्योंकि यह भगवान के दुर्लभ दर्शनों में से एक है.

गजवेष और अनवसर का महत्व

स्नान के बाद, भगवान को विशेष रूप से ‘गजवेष’ (हाथी के रूप में) में सजाया जाता है. यह वेष भक्तों के लिए विशेष आकर्षण होता है. हाथी का यह रूप भगवान गणेश से जुड़ा है, जो शुभता और समृद्धि के प्रतीक हैं. गजवेष के बाद, भगवान को फिर से ‘अनवसर घर’ में ले जाया जाता है. यह मंदिर का एक एकांत कक्ष है, जहाँ वे अगले 15 दिनों तक आराम करते हैं. इस दौरान वे भक्तों को दर्शन नहीं देते. यह भगवान के ‘बीमार’ होने और ‘ठीक होने’ का समय है. इन 15 दिनों में, भगवान को विशेष आयुर्वेदिक औषधियाँ और भोग लगाए जाते हैं, ताकि वे अपनी ‘अस्वस्थता’ से उबर सकें. ध्यान दें, इस अवधि में भक्तों को भगवान के दर्शन नहीं होते, लेकिन मंदिर में पूजा और कीर्तन जारी रहते हैं.

देवस्नान पूर्णिमा का महत्व: क्यों है यह इतनी खास?

यह उत्सव सिर्फ एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि कई मायनों में महत्वपूर्ण है:

  • भक्ति का प्रतीक: यह भक्तों के भगवान के प्रति असीम प्रेम को दर्शाता है. वे भगवान के ‘बीमार’ होने की अवधारणा को स्वीकार करते हैं और उनके ‘स्वस्थ’ होने की कामना करते हैं.
  • पारंपरिक जुड़ाव: यह सदियों पुरानी परंपराओं को जीवंत रखता है. अतः, यह अगली पीढ़ी को अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से जोड़ता है.
  • अनोखा दर्शन: यह भगवान का एक दुर्लभ और भव्य रूप देखने का अवसर देता है, खासकर ‘गजवेष’ में.
  • मनुष्यता का प्रतिबिंब: भगवान के ‘बीमार’ पड़ने और ‘आराम’ करने की यह अवधारणा दर्शाती है कि स्वयं ईश्वर भी मानवीय भावनाओं से अछूते नहीं हैं. फलतः, वे भक्तों के और करीब आते हैं.
  • रथ यात्रा की प्रस्तावना: देवस्नान पूर्णिमा विश्व प्रसिद्ध रथ यात्रा की प्रस्तावना है. भगवान के ‘स्वस्थ’ होने के बाद, वे ‘नेत्रोत्सव’ के दिन नवयौवन के साथ प्रकट होते हैं. इसके उपरांत, वे भव्य रथ यात्रा पर निकलते हैं.

अनवसर काल: क्या होता है इन 15 दिनों में?

अनवसर काल भक्तों के लिए थोड़ा धैर्य का समय है, क्योंकि वे इन दिनों भगवान के दर्शन नहीं कर पाते. हालांकि, इस दौरान भी मंदिर में गतिविधियाँ जारी रहती हैं:

  • दशावतार की पूजा: इन 15 दिनों में भगवान जगन्नाथ की अनुपस्थिति में दशावतार (विष्णु के दस अवतारों) की पूजा होती है.
  • औषधि और भोग: भगवान को वैद्य द्वारा तैयार की गई विशेष जड़ी-बूटियों वाली औषधियां और ‘पचक’ का भोग लगाया जाता है.
  • आराम और तैयारी: यह समय भगवान के लिए पूर्ण आराम का होता है. इसके बाद, वे ‘नेत्रोत्सव’ और फिर ‘रथ यात्रा’ के लिए पूरी तरह तैयार होते हैं.

रथ यात्रा और सुना वेश: त्यागराज नगर में भव्य उत्सव

देवस्नान पूर्णिमा से रथ यात्रा तक, और फिर रथ यात्रा के बाद के दिन भी, त्यागराज नगर स्थित श्री जगन्नाथ मंदिर दिल्ली में पुरी की परंपराओं को अक्षरशः निभाता है. यह मंदिर रथ यात्रा के समस्त नौ दिनों को पुरी के अनुसार ही भव्यता से मनाता है. विशेष रूप से, सुना वेश इसका एक प्रमुख आकर्षण है.

श्री जगन्नाथ मंदिर, त्यागराज नगर में सुना वेश की तैयारी

सुना वेश मंदिर के उन विशेष आयोजनों में से एक है जो भक्तों के लिए बेहद श्रद्धा और उत्साह से भरा होता है. यह वह दिन है जब भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा अपने रथों पर ही स्वर्ण आभूषणों से सजे हुए भक्तों को दर्शन देते हैं. इस भव्यता के लिए मंदिर प्रशासन और स्वयंसेवकों की टीम महीनों पहले से जुट जाती है.

तैयारियों में शामिल हैं:

  • आभूषणों की साज-सज्जा: भगवान को पहनाए जाने वाले अनमोल सोने और चांदी के आभूषणों को विशेष रूप से साफ कर चमकाया जाता है.
  • भगवान का श्रृंगार: सुना वेश के दिन, भगवान को विशेष अभिषेक कराकर नए, भव्य वस्त्र पहनाए जाते हैं. फिर उन्हें इन अलौकिक आभूषणों से सजाया जाता है.
  • रथों की सजावट: जिस रथ पर भगवान सवार होते हैं, उसे फूलों, रोशनी और पारंपरिक कलाकृतियों से इतनी खूबसूरती से सजाया जाता है कि वह दिव्य विमान सा लगता है.
  • सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ: सुना वेश पर, मंदिर परिसर में ओड़िया संस्कृति और भक्ति संगीत का अद्भुत संगम दिखता है. भजन, कीर्तन और पारंपरिक ओड़िया नृत्य वातावरण को भक्तिमय बनाते हैं.
  •  
  • सुरक्षा व्यवस्था: भक्तों की सुरक्षा और सुचारु दर्शन के लिए मंदिर प्रशासन पुख्ता इंतजाम करता है. इसमें CCTV निगरानी, वालंटियर सहायता और स्वास्थ्य टीम शामिल हैं.

    महाप्रसाद वितरण:
    इस शुभ दिन पर, मंदिर परिसर में सभी भक्तों को निशुल्क महाप्रसाद (भक्ति भोजन) वितरित होता है.

भक्तों की भूमिका और अनुभव

सुना वेश का अनुभव भक्तों के लिए शब्दों से परे है. यह ऐसा क्षण है जब हजारों आँखें एक साथ भगवान के स्वर्ण रूप को निहारती हैं. साथ ही, हर दिल ‘जय जगन्नाथ’ के उद्घोष से भर उठता है.

  • असीम धैर्य: कई लोग सुबह से ही कतार में लग जाते हैं ताकि भगवान को स्वर्ण रूप में देख सकें. ये कतारें उनके धैर्य और असीम भक्ति का प्रमाण हैं.
  • आध्यात्मिक ऊर्जा: भजन, कीर्तन और शांति का वातावरण पूरे मंदिर परिसर को एक आध्यात्मिक ऊर्जा से भर देता है. हर तरफ भगवान के नाम का जाप और भक्तों की श्रद्धा का माहौल होता है.
  • आत्मिक अनुभव: इस दिन, केवल दर्शन नहीं, बल्कि श्रद्धा का एक आत्मिक अनुभव होता है. भक्तों को लगता है मानो भगवान स्वयं उनके सामने प्रकट हुए हों.
  • श्रद्धालुओं के बोल: जैसा कि अनेक श्रद्धालु कहते हैं, “भगवान जगन्नाथ का यह स्वरूप देखकर लगता है मानो स्वयं श्रीहरि वैकुंठ से अवतरित हुए हों.” यह भावना हर भक्त के दिल में गहरी जड़ें जमा लेती है.

निष्कर्ष (Conclusion)

देवस्नान पूर्णिमा और इसके बाद रथ यात्रा, सुना वेश जैसे अनुष्ठान, भगवान जगन्नाथ की महिमा और उनके भक्तों की अगाध श्रद्धा का प्रतीक हैं. त्यागराज नगर स्थित श्री जगन्नाथ मंदिर, दिल्ली में इस अनूठी परंपरा को जीवंत रखकर, ओडिशा की समृद्ध संस्कृति और आध्यात्मिकता को राष्ट्रीय राजधानी तक पहुँचा रहा है. यह उत्सव सिर्फ धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि एक सामाजिक और सांस्कृतिक मिलन का भी मंच है. यहाँ विभिन्न पृष्ठभूमि के लोग एकसाथ आकर भक्ति के रंग में रंग जाते हैं. यह पर्व हमें सिखाता है कि आस्था और परंपरा कैसे पीढ़ियों को जोड़ती हैं. अंततः, यह दर्शाता है कि भक्ति का प्रवाह कभी रुकता नहीं.

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भक्तों द्वारा अक्सर पूछे जाने वाले सवाल – मंदिर से जुड़ाव को समझें (FAQs)

देवस्नान पूर्णिमा जगन्नाथ रथ यात्रा से ठीक 15 दिन पहले मनाई जाने वाली एक महत्वपूर्ण रस्म है. यह ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन पड़ती है, जब भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन को सार्वजनिक रूप से स्नान कराया जाता है.

यह हर साल ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है.

इस दिन, देवताओं को मंदिर के गर्भगृह से बाहर निकालकर ‘स्नान बेदी’ नामक एक विशेष ऊंचे मंच पर विराजित किया जाता है. फिर उन्हें ‘सुनार कुआँ’ (स्वर्ण कुआँ) से लाए गए 108 घड़े सुगंधित और औषधीय जल से स्नान कराया जाता है.

भव्य स्नान के बाद, यह माना जाता है कि देवता “बीमार” पड़ जाते हैं. इसके बाद वे लगभग 14-15 दिनों के लिए ‘अनवसर’ या ‘दर्शन विराम’ में चले जाते हैं, जहाँ वे सार्वजनिक दर्शन के लिए उपलब्ध नहीं होते.

 

देवस्नान पूर्णिमा सीधे तौर पर ‘अनवसर’ से जुड़ी है क्योंकि यही स्नान ‘अनवसर’ की शुरुआत का कारण बनता है. स्नान के बाद ही देवता ‘अनवसर’ में जाते हैं ताकि वे ‘स्वस्थ’ होकर आगामी रथ यात्रा के लिए तैयार हो सकें.

हाँ, देवस्नान पूर्णिमा रथ यात्रा से गहराई से जुड़ी है. यह रथ यात्रा उत्सव का पहला महत्वपूर्ण अनुष्ठान है और देवताओं को आगामी भव्य यात्रा के लिए तैयार करने की शुरुआत मानी जाती है.

इसका मुख्य उद्देश्य देवताओं को आगामी रथ यात्रा के लिए शारीरिक और आध्यात्मिक रूप से तैयार करना है. यह भक्तों के बीच रथ यात्रा के लिए उत्साह का संचार करती है और उत्सव की औपचारिक शुरुआत का प्रतीक है.

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